02-02-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन 

स्व-चिन्तक, शुभ-चिन्तक और विश्व-परिवर्तक

विश्व-कल्याणकारी शिव बाबा बोलेः-

आज बापदादा सारी सेना के वर्तमान समय के रिजल्ट को देख रहे हैं। यह रिजल्ट विशेष तौर पर तीन बातों में देखो। जैसे मुख्य चार सब्जेक्ट्स हैं, वैसे ही इन चार सब्जेक्ट्स की रिजल्ट तीन स्टेजिस में देखी। वे तीन स्टेजिस कौन-सी हैं? 

पहली स्टेज - स्वयं के प्रति स्व-चिन्तक कितने बने हैं? 

दूसरी स्टेज है - समीप सम्बन्ध व सम्पर्क में शुभ-चिन्तक कितने बने हैं? 

तीसरी स्टेज है - विश्व सेवा के प्रति। उसमें विश्व-परिवर्तक कहाँ तक बने हैं? परिवर्तन की स्टेज व परसेन्टेज कहाँ तक प्रत्यक्ष रूप में हुई है? इन तीनों स्टेजिस की रिजल्ट से चारों ही सब्जेक्ट्स का रिजल्ट स्पष्ट हो जाता है। 

मुख्य तौर पर तो पहली स्टेज - स्व-चिन्तक कहाँ तक बने हैं? - इस पर ही तीनों सब्जेक्ट्स का रिजल्ट आधारित है। सारे दिन में चेक करो कि स्व-चिन्तक कितना समय रहते हैं? जैसे विश्व-परिवर्तक बनने के कारण विश्व-परिवर्तन के प्लैन्स बनाते रहते हो, समय भी निश्चित करते ही रहते हो, विधि द्वारा वृद्धि के भिन्न-भिन्न प्लैन्स व संकल्प भी चलते ही रहते हैं, ऐसे ही स्व-चिन्तक बन, सम्पूर्ण बनने की विधि हर रोज नये रूप से, नई युक्तियों से सोचते हो? रिजल्ट-प्रमाण तीसरी स्टेज के प्लेन्स ज्यादा बनाते हो। पहली स्टेज के प्लेन्स के लिये कभी-कभी उमंग व उत्साह में जाते हो व कभी-कभी समय अटेन्शन खिंचवाता है व कोई समस्या व किसी सब्जेक्ट का रिजल्ट अटेन्शन खिंचवाती है, लेकिन वह अटेन्शन तीव्र-गति के स्वरूप में अल्प-काल रहता है। 

सेकेण्ड स्टेज-शुभ-चिन्तक की रिजल्ट स्व-चिन्तक से कुछ परसेन्ट वर्तमान समय ज्यादा है। लेकिन सफलता व कार्य की सम्पन्नता व स्वयं की स्थिति की सम्पूर्णता, जब तक फर्स्ट स्टेज फास्ट रूप के रिजल्ट तक नहीं पहऊँची है, तब तक नहीं हो सकती। उसके लिये स्वयं के प्रति स्वयं का ही प्लैन बनाओ। प्रोग्राम से प्रोग्रेस होती है, यह अल्पकाल की उन्नति अवश्य होती है लेकिन सदाकाल की उन्नति का साधन है - स्व-चिन्तक बनना। 

वर्तमान समय-प्रमाण पुरूषार्थ की गति चिन्तन के बजाय चिन्ता के स्वरूप में होनी चाहिए। सेवा के विशेष प्रोग्राम तो बनाते हो, दिन-रात चिन्ता भी रहती है कि कैसे सफल करें और उसके लिए भी दिन-रात समान कर देते हो। लेकिन यह चिन्ता सुख स्वरूप चिन्ता है। अनेक प्रकार की चिन्ताओं को मिटाने वाली यह चिन्ता है। जैसे सर्व- बन्धनों से छूटने के लिए एक शुभ-बन्धन में स्वयं को बाँधते हो, इस बन्धन का नाम भले ही बन्धन है लेकिन बनाता यह निर्बन्धन ही है। ऐसे ही इसका नाम चिन्ता है लेकिन प्राप्ति बाप द्वारा वर्से की है। ऐसे ही इस चिन्ता से सदा-सन्तुष्ट, सदा-हर्षित और सदा कमल-पुष्प समान रहने की स्थिति अथवा स्टेज सहज बन जाती है। 

वर्तमान समय संकल्प तो उठता है और चिन्तन तो चलता है कि कैसा होना चाहिए लेकिन जैसा होना चाहिए, वैसा है नहीं। यह होना चाहिए, यह करना चाहिए, ऐसे करें, यह करें - यह तो चिन्तन का रूप है। लेकिन चिन्ता का स्वरूप चलना और करना होता है, बनना और बनाना होता है, ‘होना चाहिए’ - यह चिन्ता का स्वरूप नहीं है। जब तक स्वयं के प्रति विशेष विधि को नहीं अपनाया है, तब तक वह चिन्ता का स्वरूप नहीं होगा। यह विशेष विधि कौन-सी है? यह जानते हो? कौनसी नई बातें करेंगे? जो विधि की सिद्धि दिखाई देवे? पुरानी विधि तो करते-करते विधि का रूप ही न रहा है। बाकी क्या रह गया है? 

करने के कुछ समय के बाद अलबेलापन क्यों होता है? मुख्य बात यही है कि अब तक समय की समाप्ति का बुद्धि में निश्चय नहीं है। निश्चित न होने के कारण निश्चिन्त रहते हो! जैसे सर्विस के प्लैन्स का समय निश्चित करते हो, तब से निश्चिन्त रहना समाप्त हो जाता है, ऐसे ही स्वयं की उन्नति के प्रति भी अगर समय निश्चित करते हो तो उसका भी विशेष रिजल्ट अनुभव करते हो न? जैसे विशेष मास याद की यात्रा के प्रोग्राम का निश्चय किया तो चारों ओर विशेष वायुमण्डल और रिजल्ट, विधि का सिद्धि स्वरूप प्रत्यक्ष फल के रूप में देखा। ऐसे ही अपनी उन्नति के प्रति जब तक समय निश्चित नहीं किया है कि इस समय के अन्दर हर विशेषता का सफलता स्वरूप बनना ही है व समय के वातावरण से स्व-चिन्तन के साथ-साथ शुभ-चिन्तक भी बनना ही है, तब तक सफलता-स्वरूप कैसे बनेंगे? नहीं तो अवहेलना की समाप्ति, अर्थात् सम्पूर्णता हो न सकेगी। स्वयं का स्वयं ही शिक्षक बनकर जब तक स्वयं को इस बन्धन में नहीं बाँधा है, तब तक अन्य आत्माओं को भी सर्व-बन्धनों से सदा के लिये मुक्त नहीं कर पाओगे। समझा? 

अभी क्या करोगे? जैसे सेवा में भिन्न-भिन्न टॉपिक्स का सप्ताह व मास मनाते हो, वैसे ही सेवा के साथ-साथ स्वयं के प्रति भी भिन्न-भिन्न युक्तियों के आधार पर समय निश्चित करो। यह वर्ष ऐसे खास पुरूषार्थ का है। समय अब भी कम तो होता ही जाता है परन्तु ऐसे ही आगे चलकर स्वयं के प्रति विशेष समय और ही कम मिलेगा। फिर क्या करेंगे? जैसे आज के मनुष्य यही कहते हैं कि पहले फिर भी समय मिलता था लेकिन अब तो वह भी समय नहीं मिलता, ऐसे ही स्वयं का स्वयं के प्रति यह उलाहना न रह जाये कि स्वयं के प्रति जो करना था वह किया ही नहीं क्योंकि समय जितना समीप आता जा रहा है, उस प्रमाण इतने विश्व की आत्माओं को महादान और वरदान का प्रसाद बाँटने में ही टाईम चला जायेगा। इसलिये स्व-चिन्तक बनने का समय ज्यादा नहीं रहा है। अच्छा! 

ऐसे सदा महादानी, सर्व वरदानी, स्व-चिन्तक, और शुभ-चिन्तक, विश्व की हर आत्मा के प्रति सदा रहमदिल, मास्टर सर्व-शक्तियों के सागर, संकल्प और हर बोल द्वारा विश्व-कल्याणार्थ निमित बनी हुई आत्माओं - विजयी रत्न आत्माओं-के प्रति बापदादा  का याद-प्यार और नमस्ते! 

एक वत्स की ओर देखते हुए बाबा बोले -  दिन-प्रतिदिन थोड़े समय में सफलता ज्यादा दिखाई दे रही है, यही आगे बढ़ने की निशानी है। सहज भी हो और साथ-साथ मेहनत कम और फल ज्यादा - इस स्टेज के समीप जा रहे हो न? जितना निशाना समीप दिखाई देता है, उतना नशा ऑटोमेटिकली होता है। नशा अर्थात् खुशी! यह है प्रत्यक्ष फल। तो अब प्रत्यक्ष फल का समय है। भविष्य फल नहीं, प्रत्यक्ष फल! 

(उपरोक्त वत्स ने एक बहन की तबियत का समाचार बताया) हर्षित रूप से यहाँ ही कर्म-भोग को कर्म योग से चुक्तु करना है। ऐसा न समझे कि मैं सर्विस नहीं करती हूँ - जैसे वाणी द्वारा सर्विस करते हैं, जितना एक भाषण का रिजल्ट होता है, उससे हजार गुणा ज्यादा इस प्रैक्टिकल अनुभव की सर्विस का रिजल्ट निकलता है - ऐसे समझ कर साक्षीपन से हिसाब-किताब चुक्तू करे तो सर्विस बहुत है। जो है ही सर्विसेबल उनका शारीरिक रोग निमित कारण बन हिसाब चुक्तू होता है लेकिन उसमें भी सेवा भरी हुई है। यह कोई रेस्ट नहीं है बल्कि यह भी भिन्न प्रकार की सेवा का चान्स है। ऐसे समझकर सेवा में बिजी रहे तो डबल फल मिल जायेगा। मुक्ति भी और सेवा भी। अच्छा!